क्‍या सचमुच राजनीतिक पत्रकारिता का अंत हो गया है

साहित्यिक पत्रिका हंस के अगस्‍त 2008 के अंक में पृष्‍ठ 82 पर श्री मुकेश कुमार का एक लेख प्रकाशित हुआ है जिसका शीर्षक है ''राजनीति को बाहर करने की राजनीति''। वैसे तो मुकेश जी के जो लेख यहां पर प्रकाशित होते हैं वे पत्रकारिता पर आधारित होते हैं और पठनीय होते हैं किन्‍तु इस लेख ने विशेष कर इसलिये ध्‍यान खींचा है कि ये राजनीति को केन्‍द्र में रखकर लिखा गया है । इसमें पीड़ा व्‍यक्‍त की गई है कि किस तरह से समाचार चैनल राजनीति के समाचारों को लगभग समाप्‍त करते जा रहे हैं । जब समाचार ही नहीं आ रहे हों तो विश्‍लेषण तो दूर की बात है । मुझे लगता है कि जो बात मुकेश कुमार जी ने उठाई है वही बात समाचार पत्रों के साथ भी हो रही है । समाचार पत्रों में भी राजनीति लगभग ग़ायब है । आज इस स्‍तंभ को पुन: प्रारंभ करने के पीछे कई सारे मित्रों का स्‍नेह है जो मैं इसको पुन: प्रारंभ कर रहा हूं । आज पुन: प्रारंभ करने के समय अपने समाचार पत्रों की चर्चा एक ही विषय पर करना चाहूंगा ।

दो दिन पहले की बात है पूरे प्रदेश की ही तरह हमारे शहर में भी भारतीय जनता पार्टी ने अमरनाथ मामले को लेकर ज्ञापना सौंपा और धरना दिया । भारतीय जनता पार्टी के जिला अध्‍यक्ष सहित पूर्व विधायक भी उपस्थित थे । अब आप कहेंगें कि इसमें क्‍या बात है । तो चलिये बात की बात करें । सत्‍ताधारी दल के प्रमुख मुद्दे पर होने वाले प्रदर्शन में जो कि चुनावों की पूर्व संध्‍या पर हो रहा था और जिला स्‍तर पर हो रहा था । और जिला भी कौन सा मुख्‍यमंत्री का अपना जिला । और इस जिले में प्रदर्शन में कितने लोग थे कुल बीस । सात मंच पर थे और तेरह सामने । धरने को कवर करने लगभग सभी प्रमुख समाचार पत्रों के पत्रकार और छायाकार आये पर ये किसीने नहीं देखा कि हालत क्‍या है ( या शायद देखना ही नहीं चाहा )। दूसरे दिन सभी ने धरने के चित्र लगाये जिसमें पढ़ने वालों ने भी देखा कि ज्ञापन देते समय भी संख्‍या तेरह से बमुश्किल पच्‍चीस तक ही पहुच पाई थी । परंतु किसी ने भी ये समाचार नहीं लगाया कि प्रदेश स्‍तर पर आयोजित होने वाले इस कार्यक्रम की हवा सीहोर में  क्‍यों निकल गई । पाठक सुबह चाहता था कि राजनैतिक विश्‍लेषण आये कि ऐसा क्‍यों हुआ पर लगता है कि मुकेश जी की बात ही सही है । और इसके पीछे शायद ये तथ्‍य भी है कि जन्‍मदिन तो नेताओं के ही मनते हैं जिन पर विज्ञापन दिये जाते हैं । तो कड़वी बात ये है कि या तो भौंक लो या फिर हड्डी ले लों । ये तो नहीं हो सकता कि आप हम पर भौंकते भी रहो और हमीसे हड्डी की उम्‍मीद भी करो । शायद यही कारण है कि मेरे शहर में भी कोई नहीं भौंका वो भी नहीं जिन्‍होने कुछ ही दिनों पूर्व भारी भरकम प्रचार के साथ अपने समाचार पत्र लांच किये थे कि हम करेंगें जनता की बात । आज की राजनीति दुम हिलाने वालों को पसंद करती है भौंकने वालों को नहीं सो सब दुम हिला रहे हैं । यद्यपि नवदुनिया ने ये लिखकर पूर्ती करने का प्रयास जरूर किया है कि 173 भाजपा कार्यकर्ताओं ने गिरफ्तारी दी पर मौके पर मौजूद पुलिस के जवान अधिकारी और पत्रकारों को भी जोड़ लें तो भी 100 नहीं हो रहे तो 173 ने गिरफ्तारी कैसे दी । खैर विज्ञापन के दौर में सब चलता है ।