ग़लती हालंकि देखने में तो छोटी सी है लेकिन जब बात नई दुनिया जैसे समाचार पत्र की हो तो फिर उसको बड़ा ही माना जायेगा । ऐसा इसलिये क्योंकि नईदुनिया में समाचारों में ग़लती की संभावना को शून्य माना जाता है और फिर ये भी कि नई दुनिया में हर समाचार को छापने से पहले उसको देखा और परखा जाता है । अब होने को तो ये भी हो सकता है कि नईदुनिया और नवदुनिया के बीच के अंतर को ही ग़लती का कारण मान लिया जाये और ये कह दिया जाये कि जो हुआ है वो नवदुनिया में हुआ है नई दुनिया में नहीं हुआ है । मगर मेरे जैसे खब्तियों का क्या किया जाये जो पिछले पच्चीस सालों से नईदुनिया को पढ़ ही इसलिये रहे हैं कि उसमें ग़लती को ग़लती ही माना जाता है और ये भी कि वहां मापदंडों की परंपरा अभी भी जिंदा है । तो क्या ये माना जाये कि अब नईदुनिया भी उसी राह पर चल पड़ा है जिस पर नईदुनिया के बाद आने वाले समाचार पत्र चले । खैर चलिये बात करते हैं कि ये ग़लती क्या है । दरअस्ल में आपको लगेगा कि बहुत ही छोटी सी बात का मैं बतंगड़ बना रहा हूं । ऐसी कोई घटना नहीं है कि उसको लेकर इतनी चर्चा की जाये । मगर मैं अपनी बात पर कायम हूं कि ये घटना यदि किसी दूसरे पेपर में हुई होती तो मैं उसे नजर अंदाज कर भी देता मगर नईदुनिया में हुई है इसलिये नजरअंदाज करना जरा कठिन है । समाचार बहुत छोटा सा है मध्यांचल के पृष्ठ सोलह पर एक काव्य गोष्ठी की रपट को लीड स्टोरी बना कर लगाया गया है । जैसी की नईदुनिया की स्वस्थ परंपरा रही है कि साहित्यिक समाचारों को उचित स्थान मिलता है वैसा ही किया गया है । लेकिन गोष्ठी की रपट में एक कवि जो कि स्थानीय कवि हैं उनके नाम के पीछे जो संबोधन लगाया गया है वो है अंतर्राष्ट्रीय कवि, अब अंतर्राष्ट्रीय शब्द का अर्थ या तो नवदुनिया के स्थानीय पत्रकार को पता ही नहीं है या फिर भोपाल में बैठे लोगों को भी नहीं पता है कि अंतर्राष्ट्रीय शब्द का अर्थ क्या होता है । शब्दों के चयन में गंभीरता रखने वाली नईदुनिया में ऐसी ग़लती होना खलता है । शब्दों के चयन में गंभीरता रखने से ही ये होता है कि पाठक किसी समाचार पत्र से जुड़ता है । नईदुनिया की जो इतने वर्षों की परंपरा है वो यही तो है कि यदि कहीं कोई शब्द उपयोग हो रहा है तो ये ज़रूर देखा जाये कि वो शब्द वहां उपयोग होने के योग्य है भी अथवा नहीं । मेरे गुरू श्रद्धेय डा विजय बहादुर सिंह कहते हैं कि एक शब्द कभी कभी पूरी की पूरी रचना का सर्वनाश कर देता है । उनका कहना है कि शब्दों के चयन और उनकी उपयोगिता पर पूरा विमर्श करना चाहिये क्योंकि रचना में आने के बाद यदि शब्द खल रहा है तो उसका अर्थ ये है कि शब्द अवांछित है । खैर आप सब को नव वर्ष की शुभकामनायें ।
क्या समाचार तभी होता है जब पुलिस या प्रशासन उसके होने की पुष्टि कर दें, औरों को इसका जवाब सही तरीके से देने के लिये बधाई नवदुनिया
लोकतंत्र का जो ढांचा तैयार किया गया है उसमें दो एक एक की व्यवस्था है । दो एक एक का अर्थ ये है कि व्यवस्था की जवाबदारी दी गई है दो को दो का अर्थ कार्यपालिका और विधायिका । ये दोनों ही व्यवस्था के लिये जिम्मेदार होते हैं । जो कुछ भी हमारे आस पास हो रहा है उसके लिये प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से ये ही जिम्मेदार होते हैं । इनमें से भी विधायिका को तो फिर भी पांच साल में एक बार अपने कार्यों की स्वीकृति लेने हमारे पास आना होता है । किन्तु कार्यपालिका के पास तो ऐसी कोई बाध्यता भी नहीं है कि उसको हमारे पास आना है । और शायद यही सोच कर इन दो पर एक न्यायपालिका और एक पत्रकारिता को बैठाया गया । उसमें से भी न्यायपालिका भी व्यवस्था का ही हिस्सा होती है अत: रह जाती है एक पत्रकारिता । केवल और केवल पत्रकारिता ही है जो कि सत्ता के मद में चूर कार्यपालिका और विधायिका रूपी हाथी के मस्तक पर छोटे से अंकुश का कार्य करती है । लेकिन इन दिनों पत्रकारिता में ये हो गया है कि जो संपादक विराजमान हो रहे हैं वे भी लगभग कार्यपालिका के पक्षधर हैं उनका आम जन से कोई लेना देना नहीं होता है । उनका फरमान होता है कि हर समाचार में प्रशासन और पुलिस का नजरिया ज़रूर जाये अन्यथा समाचार नहीं लगेगा । अर्थ ये कि आप किसी भी समाचार के पहले पुलिस और प्रशासन से पहले सर्टिफिकेट लो छापने का तभी वो छपेगा । और अधिकांश मामलों में होता ये है कि प्रशासन और पुलिस उस समाचार को छपने से पहले ही दबा देते हैं । जैसा हमारे शहर में कल हुआ ।
कल हमारे शहर के एक निजी स्कूल में पढ़ने वाली कक्षा दस की एक छात्रा को वहां की प्रिसीपल ने स्केल से इतना मारा कि उसके हाथ पांव सूज गये और वो लड़की दो घंटे तक बेहोश रही । बात पूरे शहर में चर्चा का विषय बन गई । लड़की का क़सूर केवल इतना था कि वो कक्षा की मानीटर थी और उसकी कक्षा में शोर शराबा हो रहा था । बात के फैलते ही स्कूल प्रबंधन हरकत में आया और लड़की के परिवार वालों पर बात को वहीं खत्म कर देने का दबाव बनने लगा । सारे समाचार पत्रों को ये बात पता थी लेकिन सब प्रतिक्षा कर रहे थे कि कब लड़की के परिवार वाले पुलिस में रिपोर्ट करते हैं । और आखिरकार ये हुआ कि स्कुल प्रबंधन के दबाव में पीडि़त लड़की के परिवार ने कोई रिपोर्ट नहीं लिखवाई । इसके साथ ही सारे समाचार पत्रों ने अपने कर्तव्य की इतिश्री भी कर ली । सबका कहना था कि पुलिस रिपोर्ट ही नहीं हुई तो हम क्या कर सकते हैं । बात भी सही है कि जब पीडि़त परिवार ही हिम्मत नहीं दिखा रहा है तो भला हम क्यों करें । किन्तु बात तो यहीं से पैदा होती है कि हिम्मत करने के लिये ही तो पत्रकारिता है आम अदमी क्यों हिम्मत करेगा । उसमें इतनी हिम्मत होती तो वो पत्रकार ही न बन जाता । खैर बधाई का पात्र है नवदुनिया समाचार पत्र कि उसने हिम्मत दिखाई और साथ ही चुप होकर बैठ गये समाचार पत्रों दैनिक जागरण, पत्रिका और भास्कर को एक करारा जवाब भी दिया । जवाब ये कि ज़रूरी नहीं कि हर बार इस बात की प्रतिक्षा की जाये कि मामले में पुलिस और प्रशासन का क्या कहना है । समाचार यदि है तो उसको लगाया जा सकता है उसके लिये किसी सर्टिफिकेट की ज़रूरत नहीं होती है । समाचार इतने अच्छे तरीके से लगा है कि उसे एक मिसाल के रूप में रखा जा सकता है । शायद जनवादी पत्रकारिता यही होती है जहां जन के प्रति समर्पण का भाव हो ना कि अफसरों और नेताओं के प्रति ।
हमको मालूम है ख़बरों की हक़ीक़त लेकिन, दिल के ख़ुश रखने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है
मैंने पिछले ही पोस्ट में लिखा था कि आजकल आलोचना को सहना एक मुश्किल काम है । हम जिस दौर में हैं उस दौर में आलोचना को निंदा माना जाता है और हम ये मानने को तैयार ही नहीं होते हैं कि हम भी कुछ ग़लती कर सकते हैं । कुछ दिनों पहले मैंने फोटो को लेकर एक कालम लिखा था कि क्या फोटो पत्रकारिता का अंत हो गया है । और अभी दो दिन पहले ही एक कालम लिखा था जिसमें एक ही पेज पर कई कई फोटो लगाये जाने को लेकर आपत्ती दर्ज की थी । बात इसलिये कर रहा हूं कि उस पोस्ट पर जहां एक और नईदुनिया पत्र समूह के मालिक श्री विनय छजलानी जी का सकारात्मक पत्र मिला वहीं पत्र समूह के किसी श्री हर्ष जी ने मुझे ये समझाने का प्रयास किया है कि मुझे पत्रकारिता के बारे में कोई ज्ञान नहीं है । उनका कहना है कि मैं नई पत्रकारिता से परिचित नहीं हूं आदि आदि । हो सकता है कि उनका कहना सही हो । लेकिन ये ज़रूर कहना चाहूंगा कि फोटो पत्रकारिता से मैं बहुत अच्छी तरह से परिचित हूं । और आपको ये ही बताना चाहता हूं कि फोटो पत्रकारिता का अर्थ ये नहीं है कि आंवले के पेड़ का आधे पेज का फोटो लगा दिया जाये कि देखिये आंवले के पेड़ में आंवले लग रहे हैं (सीहोर में दो तीन दिन पहले आपकी ही नवदुनिया में ) या फिर किसी समाचार में जो कि ढाबे पर शराब बेचने से संबंधित था आप चार कालम में एक शराब की बोतल का फोटो लगा दो (सीहोर में एक डेढ़ माह पूर्व नवदंनिया में ) या कि ये कि एक झूठी डेस्क न्यूज बनाई जाये कि सीहोर में आतंकवाद का खतरा है और उसमें सीहोर के कालेज का फोटो लगा दिया जाये । फोटो पत्रकारिता का अर्थ मैं जानता हूं और ये भी जानता हूं कि फोटो पत्रकारिता का अर्थ है कि कोई ऐसा फोटो जो कि समाचार की कमी को पूरा कर दे । मगर आप यदि चार कालम आधा पेज में आंवले का पेड़ लगा कर लोगों को ये बताना चाह रहे हैं कि देखिये आंवले के पेड़ में आंवले लग रहे हैं तो वो कहां कि फोटो पत्रकारिता है ये मैं ज़रूर जानना चाहूंगा । एक बात और बताना चाहूंगा कि मैं स्वयं फोटोग्राफी का शौकीन हूं और हमेशा अपने पास कैमरा रखता हूं कि कोई दृष्य मिले तो कैमरे में कैद कर सकूं । मगर इसका मतलब ये नहीं है कि अपने समाचार पत्र के मुख्य पृष्ठ पर मैं किसी समाचार में एक चार कालम की शराब की बोतल का चित्र लगा दूं । ये कौनसी फोटो पत्रकारिता है कम से कम नई दुनिया इंदौर जिसको मैं जानता हूं और पिछले तीस सालों से जिसका पाठक हूं और जिसके द्वारा निकाले गये सरगम का सफर और परदे की परियां जैसे अंक आज मेरे संग्रह के सबसे मूल्यवान ग्रंथ हैं, अजातशत्रु, देवेंद्र जी, श्री चिंचालकर जी, निर्मला भुराडि़या जी, श्रीराम ताम्रकार जी जैसे लेखकों के देश भर में फैले दीवानों में मैं भी हूं , उस नईदुनिया में अगर फोटो पत्रकारिता के नाम पर एक शराब की लम्बी सी बोतल देखता हूं तो कष्ट तो होता है हर्ष जी । खैर आपके लिये आज के ही एक समाचार पत्र का एक फोटो यहां दे रहा हूं जिसमें बताने की कोशिश की गई है कि लड़कियां पढ़ रही हैं ।
फोटो दैनिक भास्कर का है और फोटो में लड़कियों ने जिस प्रकार किताबें पकड़ी हैं और जिस प्रकार वे दिखाई दे रहीं हैं उससे क्या आप को लगता है कि ये फोटो अपने कैप्शन के साथ न्याय कर रहा है । फोटो पत्रकारिता मेरा प्रिय विषय है अत- उस पर मैं लम्बी बहस कर सकता हूं मगर चूंकि बात बढ़ाने से विषय उलझता है अत: मैं अपनी बात को ग़ालिब के साथ विराम देता हूं ।
हमको मालूम है फोटो (खबरों ) की हक़ीक़त लेकिन
दिल के ख़ुश रखने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है
आइये आपको मिलाते हैं दैनिक विज्ञापन भास्कर से
दैनिक भास्कर को अब एक समाचार पत्र कहना मतलब ये कि अपनी ही बुद्धि का सार्वजनिक प्रदर्शन करना । दैनिक भास्कर अब केवल एक सूचना पत्र हो कर रह गया है जिसमें समाचारों के लिये कहीं कोई स्थान नहीं होता है । लेकिन आज तो मैं जिस विषय की बात करना चाह रहा हूं वो कुछ दूसरा ही है । दरअसल में दैनिक भास्कर का इन दिनों जो स्वरूप सामने आया है उसको देख कर ये लगता है कि क्या ये वास्तव में एक समाचार पत्र ही है । या फिर एक बड़ा सा यलो पेज है जिसमें यलो पेज के पाठकों के लिये बीच बीच में कुछ समाचार लगा दिये जाते हैं । ये समाचार उसी शैली में होते हैं जिस शैली में टीवी पर विज्ञापनों के बीच बीच में कहीं कहीं आपको कार्यक्रम भी देखने को मिल जाता है । लेकिन कहा जाता है ना कि जो बिकता है वो आलोचनाओं के परे होता है । फिर भी मैंने अपने शहर के हॉकरों और एजेंटों से जानने का प्रयास किया कि आखिर लोग दैनिक भास्कर क्यों खरीद रहे हैं । जबकि उसमें कुछ भी ऐसा नहीं है जो इतना आकर्षक हो कि उसका मोह किया जाये । पहले ये बानगी देखिये उसके बाद आपको बताऊंगा कि हॉकरों और एजेंटों का उत्तर क्या था । आज मेरे हाथ में जो दैनिक भास्कर आया है वो 12 पृष्ठों का है उन 12 पृष्ठों की बात हम करते हैं । एक पृष्ठ में आठ कालम होते हैं और एक कालम की चौड़ाई लगभग 4 सेंटीमीटर होती है । अर्थात लगभग 32 सेंटीमीटर की चौड़ाई समाचार पत्र की होती है । ऊंचाई लगभग 50 सेंटी मीटर होती है । अर्थात 1600 स्कवायर सेंटीमीटर की जगह अमूमन एक पृष्ठ में होती है । 12 पृष्ठ अर्थात 19200 स्क्वायर सेंटीमीटर जगह कुल मिलाकर । मेरे हाथ में जो पेपर है उसमें पेज एक पर 480 स्क.सेमी के विज्ञापन हैं । पेज 2 पर 800, पेज तीन पर 1100, पेज चार पर संपादकीय होने के कारण विज्ञापन नहीं हैं, पेज पांच पर 800, पेज छ: पर 800, पेज सात पर 800, पेज आठ पर 1600, पेज नौ पर 640, पेज दस पर खेल पृष्ठ, पेज ग्यारह पर 300 और पेज बारह पर 1600 स्क्वायर सेमी विज्ञापन हैं अर्थात 19200 में से लगभग नौ हजार स्क्वायर सेमी के विज्ञापन हैं । इसके अलावा लगभग 1000 स्क सेमी जगह में पेज का मत्था वगैरह है । मतलब कि पाठक को पढ़ने के लिये मिला केवल नौ हजार सेमी । उसमें से भी बड़े बड़े चित्रों का हिस्सा 4000 सेमी निकाल दें तो बचता है केवल 5000 सेमी । तो भैया पाठक ये है तुम्हारे लिये जाओ पढ़ो और ऐश करों
अब सुनिये क्या कहा हॉकरों ने उनका कहना था कि दैनिक भास्कर को जो भी पाठक ले रहे हैं वे अपनी बीबी, बच्चों से मजबूर होकर ले रहे हैं । क्योंकि भास्कर के साथ आने वाली पत्रिकायें मधुरिमा, नवरंग, रसरंग और बालरंग इस वर्ग में लोकप्रिय हैं । हॉकरों का कहना है कि केवल इनके कारण ही पेपर चल रहा है । इसे कहते हैं कि मूल रह गया पीछे और ब्याज चल रहा आगे ।
खैर कल के पोस्ट पर नईदुनिया ग्रुप के मालिकों में से एक श्री विनय छजलानी जी का कमेंट प्राप्त हुआ है । जानकर अच्छा लगा कि आज भी ऐसे लोग हैं जो आलोचना और निंदा के बीच के अंतर को पहचानते हैं । चलिये मिलते हैं कल किसी और विषय के साथ ।
अब समाचार पत्र वाले शायद पाठकों को मूर्ख समझने लगे हैं ।
कल ही मैंने जागरण के बारे में लिखा था और आज ही अपने दूसरे फेवरेट पर कलम चलानी पड़ रही है । कल नवदुनिया जो कि वास्तव में नई दुनिया है और हमारे यहां पर नाम बदल कर नवदुनिया के नाम से आता है । कुछ दिनों से मैं देख रहा हूं कि कि नवदुनिया में ऐसे समाचार हमारे पृष्ठ पर लगे मिलते हैं जिनका हमारे शहर से कोई लेना देना नहीं होता है । मगर फिर भी उनको हमारे पृष्ठ पर हमारे ही शहर के नाम से लगाया जाता है । पहले तो मैंने सोचा कि ग़लती से लग गया होगा । मगर बाद में पता चला कि ये तो अमा बात है आजकल एक नये तरह की पत्रकारिता चल रही है जिसको कि कहा जाता है टेबल पत्रकारिता । इस पत्रकारिता में होता ये है कि एक समाचार बनाया जाता है और सारे केन्द्रों को भेज दिया जाता है कि इसको अपने अपने पृष्ठ पर अपने शहर की डेट लाइन के साथ लगा लिया जाये । समाचार का भले ही उस शहर से कोई लेना देना हो या नहीं हो लेकिन उसको लगाया जाता है । ये जो टेबल पत्रकारिता है इसमें हमारे इंटरनेट का भी योगदान कम नहीं है । अब जैसे एक खबर किसी संपादक ने नेट पर देखी जिसमें हेडिंग था नये धारावाहिकों का प्रसारण नहीं होने के कारण दर्शकों में निराशा । अब संपादक महोदय क्या करते हैं कि नेट से समाचार को कापी करते हैं और अगर फोंट बदलने की ज़रूरत हो तो बदल कर सारे सेंटरों को भेज देते हैं कि इस समाचार को अपने पृष्ठ पर लगा लो और इसमें लोकल के एक दो लोगों के नाम लगा देना । पता चलता है कि अगले दिन समाचार पत्र के सारे स्थानीय संस्करणों में स्थनीय पृष्ठ पर डेटलाइन बदल बदल कर ये समाचार लगा होता है । अगर आपने सीहोर में ये समाचार पढ़ा था जिसमें डेट लाइन सीहोर लगी थी और आप किसी काम से होशंगाबद उसी रोज गये तो आपको पता लगेगा कि ये समाचार तो होशंगाबाद में भी होशंगाबाद की डेट लाइन के साथ लगा है । ये किस प्रकार की पत्रकारिता है मेरे तो समझ से बाहर की बात है ।
चलिये आज की बात करें कि आज नवदुनिया ने क्या किया है । हां ये बात तो है कि जलसंकट आने वाला है मगर उस जल संकट के चलते आप समाचार पत्र के स्थानीय संस्करण का पूरा पृष्ठ ही समर्पित कर दें । पाठक तो ज्यादा से ज्यादा समाचार चाहता है और आपने एक पूरा पेज ऐ ही समाचार को दे दिया । तिस पर भी ये कि समाचार तो कहीं है ही नहीं वास्तव में तो आपने तीन बड़े बड़े चित्र लगा दिये हैं । एक बड़ी सी परिचर्चा लगा दी है जिसमें छ: ऐसे लोगों के फोटो आपने छाप दिये हैं जिनको जल संकट के बारे में कोई तकनीकी ज्ञान नहीं है । शहर के पांच छ: व्यपारियों को छांट कर उनके नाम से सचित्र परचिर्चा लगा दी है । परिचर्चा का अर्थ होता है उस विषय का ज्ञान रखने वाले लोगों का विचार कि वे क्या सोचते हैं इस बारे में । मगर यहां तो पता नहीं क्या सोचा कर ये नाम छांटे गये हैं । एक लगभग छ: कालम का फोटो और दो अन्य फोटो एक बड़ी सी पांच कालम की परिचर्चा और बीच में एक छोटा सा समाचार, बन गया पेज । अगर ये नवदुनिया कर सकती है तो अब पता नहीं मुझे कौन सा समाचार पत्र ढूंढना होगा पढ़ने के लिये या हो सकता है कि अब समाचार पत्र पढ़ना ही बंद करना पड़े । परिचर्चा को जब तक पठनीय नहीं बनाया जाये तब तक परिचर्चा को केवल दो ही लोग पढ़ते हैं एक तो जिसका फोटो छपा है वो और दूसरा वो जिसने लिखी है । खैर जो भी हो मिथक टूटने के लिये ही बनते हैं और आज एक मिथक और दरक गया है ।
जागरण जैसा समाचार पत्र और चाटुकारिता का ऐसा नमूना, मुझे आज इस बात पर शर्म आ गई कि मैं भी पत्रकार ही हूं ।
कहते हैं कि मिथक कभी न कभी टूट ही जाते हैं । जैसे मेरा बनाया हुआ एक मिथक था कि मैं समाचार पत्रों में दैनिक जागरण को थोड़ा सा अलग तरह का समाचार पत्र मानता था । सहीं बताऊं तो भले ही लोग कहते हैं कि उनका दिन दैनिक भास्कर के बिना प्रारंभ नहीं होता लेकिन मैं अपनी कहूं तो मुझे रोज दो पेपर तो आवश्यक हैं ही एक तो नई दुनिया और दूसरा दैनिक जागरण । मगर अब लगता है कि दैनिक जागरण भी औरों की ही राह पर चल पड़ा है । आज मेरे यहां के पृष्ठ पर एक स्तंभ लगा है जिसका नाम है ''कलेक्टोरेट हलचल '' उसको पढ़ने के बाद एकबारगी तो ऐसा लगा कि अपने सर के सारे बाल नोंच कर सड़क पर कूद कूद कर कहूं कि मैं पत्रकार नहीं हूं कोई भी मुझे इस नाम से बुला कर गाली मत देना । स्तंभ हमने काफी पढ़े हैं और जिस स्तंभ के नाम से ये छापा गया है कलेक्ट्रेट हलचल वो भी हमने काफी पढ़े हैं मगर ऐसा ... ये तो कभी नहीं पढ़ा । प्रशासनिक हलचल के नाम पर पहले जो कुछ छापा जाता था उसको पढ़कर आनंद आ जाता था । अंदर की ऐसी ऐसी खबरें निकाली जातीं थीं कि बस । मगर आज ये क्या हो रहा है । किस प्रकार की पत्रकारिता की जा रही है ये ।
क्या हम पत्रकार बस केवल प्रशासनिक अधिकारियों के चारण भाट ही रह गये हैं और हमारा बस एक ही मकसद रहा गया है कि हम शब्दों से अधिकारियों के चरण पखारते रहें । हम उस व्यवस्था के तलवे चाटने के काम में लग जायें जिससे संघर्ष करने के लिये हमने पत्रकारिता में प्रवेश किया था । हम क्यों भूल रहे हैं कि हमारी जवाबदारी तो जनता के प्रति है । हम तो उसके वकील हैं । मगर ये हमें क्या होता जा रहा है कि हम अदालत में खड़े होकर अपनी जनता की बात करने की बजाय प्रतिपक्ष का डंका पीटने में लग जाते हैं । हम नेताओं और अधिकारियों के तलवे केवल इसलिये चाटते हैं कि वे हमारे कुछ क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ती कर देते हैं । और स्वार्थ भी कैसे हमें शासकीय आवास आवंटित कर देते हैं या किसी शासकीय कार्यक्रम का मंच संचालन हमसे करवा कर हमें उपकृत कर देते हैं । हम लौट कर उसी दौर में आ गये हैं जब कलम का काम केवल एक ही होता था कि वो लोगों को महान बनाने का काम किया करती थी । कलम में उस समय रीढ़ की हड्डी नहीं हुआ करती थी । उस पर सोने की मोहरें रख कर उससे चाहे जैसा लिखवाया जा सकता था । बीच में ये हुआ कि कलम ने झुकना बंद कर दिया था उसने विरदावली गाना बंद कर दिया था । मगर आज हम फिर वहीं हैं।
आइये आपको पढ़वाऊं कि किस प्रकार का लेख वहां पर प्रकाशित किया गया है । सबसे पहले तो आपको ये बता दूं कि हमारे जिले में श्री डी पी आहूजा कलेक्टर हैं, भावना बालिम्बे अतिरिक्त कलेक्टर हैं, चंद्रमोहन मिश्रा एसडीएम हैं और राजेश शाही तहसीलदार हैं । जो स्तंभ छापा गया है उसमें वीरगाथाकाल के कवियों की ही तरह से इन चारों की आल्हा ऊदल वाली स्टाइल में यशोगाथा गाई गई है । मेरा अनुरोध है कि आप भी पूरा पढ़ें लेख की भाषा को देखें उसके शिल्प को देखें और बतायें कि ये किस दिशा में जा रही है पत्रकारिता । इसे भड़ास पर भी देखें यहां ये लेख लगा है ।
कलेक्ट्रेट हलचल
विधानसभा चुनाव से छा गये आहूजा : मुख्यमंत्री का गृह जिला होने के नाते इस जिले में विधानसभा चुनाव निष्पक्षता और शांतिपूर्ण तरीके से करवाना तलवार की धार पर चलने के समान था । इस चुनौती को कलेक्टर डीपी आहूजा ने न केवल स्वीकारा बल्कि संपूर्ण चुनाव के दौरान निष्पक्षता ने जनता को हमेशा उत्साहित किया । शायद यही वजह रही कि इस बार जिले की चारों विधानसभा क्षेत्रों में रिकार्ड मतदान देखने को मिला । सबसे अच्छी बात यह रही कि आदर्श आचरण संहिता के पालन में कलेक्टर आहूजा ने समन्वित तरीके से समस्त चुनाव प्रक्रिया का पालन किया । उन्होंने गलती किये जाने पर किसी को नहीं बख्शा । यही कारण था कि जिले में चुनाव ऐतिहासिक संदर्भ में यादगार बन पड़े हैं । चुनाव के दौरान भाजपा प्रत्याशी रमेश सक्सेना के नामांकन के दौरान और मतगणना के दिन कांग्रेस प्रत्याशी महेश राजपूत के मामलों में प्रशासन ने कठोरता से कार्रवाई कर अपनी दृढ़ इच्छा शक्ति का परिचय दिया है ।
भावना ने की जमकर मेहनत : अतिरिक्त कलेक्टर भावना बालिम्बे ने विधानसभा चुनावों के दौरान उप जिला निर्वाचन अधिकारी के रूप में पूरा चुनाव समन्वित किया । मतदान से पहले मतदान दलों की रवानगी हो या फिर मतगणना के बाद ईवीएम मशीनों की वापसी हो । पूरा काम प्रक्रियाबद्ध तथा समय अनुसार चला । इस काम के प्रभावी निष्पादन में एडीएम भावना बालिम्बे की भूमिका सराहनीय रही । पूरा चुनाव कार्यक्रम व्यवस्थित तरीके से चला । सबे अच्छी बात यह रही कि अधिकारियों और कर्मचारियों को वरिष्ठ अधिकारियों का पूरा सहयोग मिला ।
एसडीएम ने बहाया पसीना : विधानसभा चुनावों के दौरान इस बार एस डी एम को रिटर्निंग आफिसर के रूप में एक नई जवाबदारी मिली । इस जवाब दारी में एसडीएम चंद्रमोहन मिश्रा ने प्रभावी भूमिका का निर्वहन किया । वाहनों की धर पकड़ में एसडीएम का कार्य प्रशासन के लिये सकारात्मक रहा । वहीं ईवीएम मशीन के जमा करने की प्रक्रिया को जिस तरीके से एसडीएम ने इस बार व्यवस्थित किया उसी के चलते मतगणना की रात्रि 12 बजे तक 90 प्रतिशत ईवीएम स्ट्रांग रूम में पहुंच चुकी थी । इस बार कर्मचारियों ने इस प्रक्रिया के बाद राहत की सांस ली ।
शाही पूरे समय घूमते रहे : विधानसभा चुनावों के दौरान तहसीलदार राजेश शाही चुनाव कार्य को अमलीकृत करने के लिये पूरे समय मेहनत करते देखे गये । मतगणना स्थल पर राजेश शाही हमेशा ही पैदल घूम घूम कर काम का निष्पादन करते रहे । मिडिल मेनेजमेंट का समन्वय इस बार तहसीलदार राजेश शाही के कंधे पर था । उन्होंने अपने अधीनस्थ अधिकारियों के साथ बेहतर तालमेल बिठाकर कार्य किया ।
पत्रिका समाचार पत्र के अनुसार काश्मीर भारत का अंग नहीं है
आज का पत्रिका समाचार पत्र देखा तो उसके साथ आया रविवारीय हम लोग भी देखा । उसमें श्री अजय सेतिया जी का लेख सुद्री सीमा कितनी सुरक्षित प्रकाशित हुआ है । लेख सामयिक है और तथ्यों के आधार पर काफी अच्छी जानकारी देने का प्रयास किया है । किन्तु ऐसा लगता है कि पत्रिका के संपादकीय में ऐसे लोग हैं जो भारत के नक्शे के बारे में या तो जानते ही नहीं हैं या फिर वे अपने ही समाचार पत्र में प्रकाशित होने वाले चित्रों को देखने का प्रयास ही नहीं करते । यहां पर भारत का जो नक्शा छापा गया है वो वहीं नक्शा है जो कि पाकिस्तान द्वारा बताया जाता है और जिसमें कि काश्मीर को भारत का अंग नहीं बताया जाता है । इस नक्शे में भारत का ऊपरी हिस्सा कटा हुआ दिखाया जाता है । दरअस्ल में पाक अधिकृत काश्मीर को भारत अपने नक्शे में दिखाता है जबकि पाक उसको नहीं दिखाता है । आज के पत्रिका समाचार पत्र में जो भारत का नक्शा प्रकाशित किया गया है । उसमें भी पाक अधिकृत काश्मीर को नहीं दिखाया गया है । इसके क्या मायने निकाले जायें, क्या पत्रिका समाचार पत्र भी ये मानता है कि पाक अधिकृत काश्मीर भारत का हिस्सा नहीं है । क्या पत्रिका समाचार पत्र से इस मामले में जवाब तलब नहीं होना चाहिये । क्या ऐसे समाचार पत्रों पर आपराधिक या देशद्रोह का मुकदमा नहीं चलाया जाना चाहिये । किन्तु बात वही है कि हमारे देश में समाचार से जुड़े लोगों के अपराध माफ होते हैं । जैसे अभी मुबई में हुई घटनाओं में समाचार चैनल भी बराबर के दोषी हैं, क्या उन पर भी आतंकी लोगों की मदद करने का मामला नहीं दर्ज होना चाहिये । क्योंकि उन्होंने भी लाइव दिखा दिखा कर आतंकियों और उनके आकाओं की मदद की थी ।
पत्रिका द्वारा प्रकाशित भारत का नक्शा जिसमें पाक अधिकृत काश्मीर नहीं है ।
भारत का वो नक्शा जिसमें पाक अधिकृत काश्मीर भी शामिल है ।
पास से देखें दोनों को