वैदेही की तड़प, उर्मिला की पीर, और मांडवी की छटपटाहट : विरह के रंग (काव्य संग्रह) कवयित्री सुश्री सीमा गुप्ता, समीक्षा श्री रमेश हठीला

विरह के रंग (काव्य संग्रह) ISBN: 978-81-909734-1-0 सीमा गुप्ता

virah ka rang
मूल्य : 250 रुपये प्रथम संस्करण : 2010 प्रकाशक : शिवना प्रकाशन पी.सी. लैब, सम्राट कॉम्प्लैक्स बेसमेंट बस स्टैंड, सीहोर -466001(म.प्र.) दूरभाष 09977855399

पुस्‍तक समीक्षा द्वारा श्री रमेश हठीला

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सुश्री सीमा जी के काव्य संग्रह विरह के रंग का सप्त रंगी  इन्द्रधनुष का यह काव्य गुच्छ सिर्फ शब्दों  का मकड़ जाल नहीं अपितु उस छटपटाती  मकड़ी की अपनी वेदना है, जो स्वयं जाल बुन कर उसमें  उलझ स्वयं को मुक्त करना चाहती है, इनकी रचनाओं में प्यासी मीन सी अकुलाहट, छटपटाहट  है वहीं  स्वाती बूंद को सीपी में समाने की व्याकुलता स्पष्ट दृष्टि गोचर होती है। प्यार  का पुष्प  विरह की समीर बिन सुवासित हो ही नहीं पाता । विरह का रंग, अनुभव  और अनुभूति का वह कल कल करता झरना  है जो कभी ऑंखों  से तो कभी आहों की राह से वेगवती सरिता  सा सागर में समाहित होने मदांध गज की भाँति सबको रोंदता बढ़ता चला जाता है  ।
वियोगी होगा पहला कवि आह से निकला होगा गान, इन ध्रुव पंक्तियों का शाश्वत दर्शन होता है विरह के रंग काव्य संकलन में । त्रेता, द्वापर और आधुनिक युग की अनुभूति  का साँगो पाँग दर्शन है विरह के गीत । वैदेही की तड़प, उर्मीला  की पीर, और मांडवी  की छटपटाहट  को ऑंसू के धागे में पिरोने का साहस या तो प्रेम दिवानी मीरा ने दिखाया, या उध्दव समक्ष ब्रज गोपिकाओं ने ।
सीमा जी के विरह के रंग हर संवेदनशील मन को अपने से प्रतीत होते हैं । पाठक पढ़ते पढ़ते स्वयं ही रचनाओं में समाहित हो एकाकार होने लगता है । काव्य कृति को व्याकरण की कसौटी पर न कसते हुए मन की कसौटी पर कसना होगा । क्योंकि जहाँ पर मन होता है वहाँ केवल भावनाएँ होती हैं, न कोई व्याकरण और न व्याकरण की कसौटियाँ । हालाँकि ये बात भी सच है कि व्याकरण की कसौटी पर खरा उतरना ही कविता का  मानदंड होता है, किन्तु,  सीमा जी की कविताएँ आत्मा की छटपटाहट की कविताएँ हैं, और ऑंसू जब बहते हैं तो किसी नियम का पालन नहीं करते  । लेकिन भविष्य में सीमा जी को भावों और व्याकरण के संतुलन पर और ध्यान देना होगा ।
विरह के रंग की कविताएँ वे कविताएँ हैं जिनको पढ़ने वाला जब इनके भावों में डूबता है तो  अनुभव और अनुभूति की मदिर-मदिर रश्मियाँ स्वत: ही अधरों  पर मुखरित हो थिरकने लगती हैं, और विरही मन कह उठता है ।
मुझसे मुँह मोड़ कर तुमको जाते हुए
मूक दर्शक  बनी देखती रह गई
क्या मिला  था तुम्हें मेरा दिल तोड़कर
जि़दगी भर यही सोचती  रह गई 

इसी प्रकार का बिम्ब हमें तुम्हारा  है  रचना में भी दिखाई  पड़ता  है, बानगी देखें 
जो भी है  सब वो तुम्हारा है
यह दर्द कसक दीवाना  पन
यह रोज़ की बेचैनी उलझन 
यह दुनिया से उकताया  मन
यह जागती ऑंखें  रातों में 
तन्हाई में मचलन तड़पन

सीमा जी की रचनाओं में जहाँ राग, अनुराग, वैराग्य का समागम है, वहीं आकाश पर चमकने वाली दामिनी की तड़प, हीर, सोहनी और मीरा की पीर, शब्दों का सैलाब बन कर उन्मुक्त भाव से अपने को अभिव्यक्त कर रही है । एक विचित्र सी प्यास, जिसे हम मृग मरीचिका कहें तो कोई भी अतिशयोक्ति नहीं होगी । विरह की वेदना, दग्ध होलिका की भाँति दिखाई तो देती है किन्तु उसे महसूस एक वियोगी  ही कर सकता है । एक काव्य सृजक ही बाँसुरी की वेदना को कल्पना की छैनी से उकेर कर उसे शब्दों में ढाल सकता है, ये बात सीमा जी की कविताओं से पुष्ट होती है । आज अगर प्रेम अजर अमर है तो वह वियोग के बल पर ही है । प्रेम तो परजीवी अमरबेल की भाँति है, वियोग का वृक्ष ही उसे अपने ऊपर आच्छादित किये हुए है । विरह के रंग ये काव्य संग्रह भी प्रेम की लोकप्रियता में वियोग या विरह के महती अवदान की बात की पुष्टि करता है।  सीमा जी के गीत हों या ग़ज़ल  दोनों ही क्षेत्रों  में विरह  की अग्नि समान  रूप से दमकती  है । ग़ज़ल  की बानगी अपनी कहानी  में  देखें
बहुत तलब है बहुत तड़प  है और कसक 
कोई  नहीं है उसका  सानी  सुनती हूँ
एक उदासी  दिल पर मौत  के जैसी थी
लेकिन अब जीने का  ठानी सुनती हूँ

'एक उदासी दिल पर मौत के जैसी थी, लेकिन अब जीने की ठानी सुनती हूँ' इन पंक्तियों में मुश्किलों के घटाटोप तिमिर को कवि मन चुनौती दे रहा है । चुनौती इस बात की, कि जीवन कभी समाप्त नहीं होता । अंधेरा, उदासी ये सारी चीजें समायिक हैं और जीवन इन सबसे ऊपर होता है । वो कभी भी नहीं हारता । इसीलिये तो वो कहता है 'लेकिन अब जीने की ठानी'।  सीमा जी की कविताएँ भले ही विरह की कविताएँ हैं लेकिन इन कविताओं में पराजय का बोध कहीं नहीं है । इन कविताओं में विरह तो है लेकिन वो विरह पलायन का रास्ता नहीं पकड़ रहा है, और न दीनता की ओर अग्रसर होता दिख रहा है, यही तो कृष्ण ने  कहा था अर्जुन से न दैन्यं, न पलायनम । सीमा जी की कविताओं की जो सबसे बड़ी विशेषता है वो यही है और यही एक बात इनकी विरह की कविताओं को सामान्य विरह की कविताओं से अलग करती है । कवि मन हर उदासी को तोड़ देना चाहता है तभी तो कह उठता है-
बेचैनियों को करके दफ्न
दिल के किसी कोने में,
रागिनियों से मन को बहलाया जाए
खामोशी के आगोश से
दामन को छुड़ा कर, ज़रा,
स्वर को अधरों से छलकाया जाए

अंतर्मन, एहसास, तेरे जाने के बाद,  मौन जब मुखरित हुआ, यादों  की पालकी में रचनाकार ने अपने मन की समग्र पीड़ा को कांगा की धरती पर, कलम की पिचकारी बना विरह के रंग से सजाया है । इन कविताओं में एक मौन है, एक विचित्र सी खामोशी है जो कविताओं के समाप्त होने के बाद भी गूँजती रहती है, ठीक वैसे ही जैसे किसी तो रंफ्तार रेल के गुज़र जाने के बाद पहाड़ों में उसकी प्रतिध्वनि देर तक गूँजती है। ये सन्नाटों की कविताएँ हैं । 
मीनाक्षी जोशी जी द्वारा किसी लेख में लिखी गई बात याद आ रही है जो उन्होंने विरह पर लिखी है ''विरह प्रेम की जागृति है । विरह के पदों में सबसे पहली बात है चारों ओर के वातावरण में सूनेपन, एकाकीपन और विषाद की भावना । वर्षा ऋतु में जब बादल छाते हैं, वज्रपात होता है, अन्धकार भर जाता है, घर सूना रहता है तब नयन और हृदय दुख की जिस घनी छाया में डूबे रहते हैं उसकी अभिव्यक्ति अनुभूति से ही सम्भव होती है । '' मीनाक्षी जोशी जी की बात का उध्दरण यहाँ देने के पीछे प्रयोजन ये है कि सीमा जी कविताएँ उस अनुभूति की अभिव्यक्ति करने में पूरी तरह से सफल रहीं हैं, जिसके बारे में मीनाक्षी जी ने लिखा है ।
सीमाजी  की यह प्रथम  काव्य कृति  है, मातृ  भाषा  हिन्दी  के प्रति  उनका यह अगाध  नेह इसी प्रकार बना रहे, यही माँ वीणापाणी  से कामना है । पाठक  वृंद विरह के रंग को अपना आशीष प्रदान करेंगें, इसी कामना के साथ ।
-रमेश हठीला 
मुकेरी लाइन, सीहोर
मध्यप्रदेश-466001
संपर्क : 09977515484

3 comments:

seema gupta said...

आदरणीय पंकज सुबीर जी के मार्गदर्शन के तहत विरह के रंग के साथ अपने पहले काव्य संग्रह को साकार रूप में देखना एक उपलब्धि से कम नहीं मेरे लिए. पंकज जी का आभार किन शब्दों में व्यक्त करूं समझ ही नहीं आ रहा.
वरिष्ट कवि तथा सुप्रसिद्ध गीतकार श्रद्धेय श्री रमेश हठीला जी का आभार शब्दों में व्यक्त करना मेरे लिए असंभव है , उन्होंने जिस प्रकार से मेरी कविताओं का भाव पकड़ कर भूमिका लिखी है वो अद्युत है. श्री हठीला जी ने मेरी कविताओं को नये और व्यापक अर्थ प्रदान किये उनकी लेखनी को मेरा प्रणाम. शिवना प्रकाशन की टीम वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय श्री नारायण कासट जी , वरिष्ट कवी श्री हरिओम शर्मा दाऊ जी का आभार जिन्होंने संग्रह के लिए कविताओं के चयन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

आभार युवा डिजाइनर सुरेंद्र ठाकुर जी का जिन्होंने मेरी भावनाओ तथा पुस्तक के शीर्षक विरह के रंग को बहुत अच्छा स्वरूप देकर पुस्तक का आवरण प्रष्ट डिजाइन किया और सनी गोस्वामी जी का जिन्होंने पुस्तक की आन्तरिक साज सज्जा तथा कम्पोजिंग का काम बहुत ही सुन्दरता से किया. आभार मुद्रण की प्रक्रिया से जुड़े श्री सुधीर मालवीय जी था मुद्रक द्रष्टि का भी जिन्होंने मेरी कल्पनाओ को कागज पर साकार किया.
आदरणीय पंकज सुबीर जी का बेहद आभार जिनके आशीर्वाद और सहयोग के बिना ये काव्य संग्रह एक सपना ही रह जाता.
regards

Amit Verma said...

Many many many Congratulations to you Seema.

This book comes like a sweet surprise to me. It was a long due "act", since the poetry has become the integral part of your life.

Truly a moment of such a refreshing breeze.

May God bless you and give you the strength to write more poems, more books and the strength to reach a highest place - which you certainly deserve.

I wish I could see you now and listen few poems from this book in your voice..

All the best for your future and may God give you all the happiness as you have little short of them lately..

I am extremely happy and You inspire me to do well in my life by setting this great example..

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

seema ji ko badhaayi.....aap sabkaa aabhaar....