मित्रों मैं नहीं जानता कि मैं ऐसा क्यों लिख रहा हूं या कि ऐसा सोचने के पीछे मेरा क्या कारण हो रहा हे पर मेरी सोच में इन दिनों कुछ ग़लत बातें आ रहीं हैं ओर ये बातें बाकायदा आरही हैं । मैं मूलत: एक कहानीकार हूं और अपनी ज्यादातर कहानियां मैंने सांप्रदायिकता के खिलाफ ही लिखी हैं उसमें से भी कादम्बिनी में प्रकाशित कहानी तुम लोग और वागर्थ में प्रकाशित घेराव तो वो कहानियां हैं जिन्होंने मुझे पहचान दी है एक और मेरी कविता है मैं शर्मिंदा हूं मोदी जी ये कविता भी काफी सराही गई है पर ये रचनाएं लिखने वाला मैं ही इन दिनों एक अलग तरह के विचारों से जूझ रहा हूं । और उसके पीछे दो कारण हैं पहला कारण तो ये है कि पिछले दिनों मैंने एक उर्दू मुशायरे का संचालन किया था और उस मुशायरे में मेरे अलावा सभी शायर मुस्लिम थे मैं उर्दू पर शायद थोड़ा सा अधिकर रखत हूं और आयोजक चाहते थे कि मैा ही संचालन करूं सो मैं संचालन करने लगा मगर मैं हैरत में रहा गया कि सारे शायरों की नाक भौं सिकुड़ गईं कि एक हिंदूं करेगा मंच का संचालन । गंगा जैसी नज्म लिखने वाले रहबर जौनपुरी ने मेरे खिलाफ बाकायदा टिप्पणी भी की । हां उर्दू के विद्वान जनाब इशरत कादरी साहब ने जरूर मेरी पीठ ठौंकी और कहा खूब अच्छा संचालन किया भई मजा आ गया । दूसरी घटना ये हैं कि कुछ दिनों पहले जब ईद आई थी तो मैंने सुबह से करीब पचास फोन किये 100 एसएमएस किये और शाम को सपत्नीक करीब 10 जगहों पर मिलने गया मगर हैरान तब रह गया जब दीवाली के दिन ना तो किसी मुस्लिम भाई का फोन आया न एसएमएस और मिलने आने की तो बात ही दूर रही । ये बातें मुझे उद्वेलित किये हुए हैं और मुझे ऐसा लग रहा है कि मैं ग़लत दिशा में सोच रहा हूं जो मुझे नहीं सोचना चाहिये । मगर क्या करूं मेरा सोच मुझे परेशान किये हुए है मैं धर्म को लगभग नहीं के बराबर मानने वाला इंसान हूं और मैं ये भी मानता हूं कि धर्म ने इंसानियत का जितना नुक्सान किय है उतना किसी और चीज ने नहीं किया । फिर भी मैं ऐसा सोच रहा हूं तो मुझे लगात है कि वो गलत है कृपया मेरा मार्गदर्शन करें ।
आइए आज तरही मुशायरे को आगे बढ़ाते हैं मन्सूर अली हाश्मी जी के साथ, जो अपनी
दूसरी ग़ज़ल लेकर हमारे बीच उपस्थित हुए हैं
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*बस अब दीपावली का पर्व बीत रहा है। कल देव प्रबोधिनी एकादशी है जिसके साथ ही
आंशिक रूप से दीपावली का पर्व समाप्त हो जाता है। कहीं-कहीं यह कार्तिक
पूर्णिमा त...
1 week ago
8 comments:
जैसा आप कह रहे हैं वैसी बातों से लगभग हम सभी को कभी ना कभी जूझना पड़ता है और फिर यह सोच कि हमें वही करना चाहिये जो हमें सही लगता है हमें शान्त कर देती है । वैसे हमारे एक मुस्लिम मित्र के घर बाकायदा सबको ईद में बुलाया जाता था और क्योंकि गुजरात में लगभग सब शाकाहारी हैं इसलिये वे कोई भी माँसाहारी या अंडे वाली चीज उस दिन नहीं पकाते थे ।
घुघूती बासूती
स्वयं के भोगे हुए यथार्थ पर आप विश्वास नहीं कर पा रहे हैं। आप तो साहित्यकार और बुद्धिजीवी हैं आपको कोई क्या सलाह दे सकता है। आप जैसे लोगों से तो समाज स्वयं सच्चाई पर आधारित मार्गदर्शन की अपेक्षा रखता है।
एक हिन्दुत्त्ववादी आपकी बात पर खुश हो सकता है, मगर एक राष्ट्रवादी को तो दुख ही होगा. आपके दुख में मेरा दुख शामिल समझे. सब एक जैसे नहीं होते. यह सत्य होते हुए भी पूर्ण सत्य नहीं है.
अच्छा है आपने लिखा. मुस्लिमो की आलोचना से बचने वाले वास्तव में उन्हे पतन की ओर ले जा रहे है.
सब एक जैसे नहीं होते, अतः यह सत्य होते हुए भी पूर्ण सत्य नहीं है.
जब हम किसी को कुछ दें तो और उसके बदले कुछ पाने की इच्छा भी करें तो शायद हमारी भावनाऎं सच्ची नहीं. लेना और देना तो व्यापार है. यदि आप सही में कुछ देना चाहते हैं चाहें वह शुभकामनाऎं ही हों तो बदले में किसी भी चीज की इच्छा ना करें.
काकेश जी की बात से मैं पूरी तरह से सहमत हूँ. बदले में पाने की इच्छा दुख के सिवा कुछ नहीं देती..
दिल में आने वाले ऐसे-वैसे ख्यालों को झटका देकर शुभकामनाएँ भेजते रहिए...आपको अच्छा ही लगेगा...न भेजकर आप बेचैन हो जाएँगे यह मेरा अनुभव कहता है...
काकेश जी और मीनाक्षी जी बात लेन देन की नहीं है बात व्यवहारिकता की है और इससे तो उन लोगों को और भी बल मिलेगा जो कि ये कहते हैं कि मुस्लिम हिंदुओं के त्यौहारों में शामिल नहीं होते अगर हमें सांप्रदायिकता के जहर से लड़ना है तो मुस्लिमों की गलतियों पर भी बात करनी होगी बात केवल मेरी नहीं है बात सबकी हे । मेरे काफी सारे हिंदू शायरों के साथ ऐसा ही व्यवहार किया जाता है इस तरह से देखा जाता है जैसे हम दोयम दर्जे के हैं खैर वो बात तो अलग है पर दीवाली जैसे त्यौहारों पर अगर आप शुभकामनाएं देने की जहमत नहीं उठा सकते तो फिर छोड़ दीजिये सांप्रदायिकता से लड़ने का ख्वाब । आप दोनों ने जो लिखा है उससे मैं इसलिये सहमत नहीं हूं कि इस टालू रवैये ने ही तो हिंदू अतिवादियों की दुकानों को जमने दिया हे और वो इसलिये क्योके अक्सर होता वही है जो हिंदू अतिवादी बताते हैं । हमने कभी मुस्लिम को ये बताने का प्रयास ही नहीं किया कि आप कहां गलत हो रहे हैं और अगर कोई करता है तो उसको ये कहका जाता हे कि वो सांप्रदायिक है । मैंने अभी तक सांप्रदायिकता के खिलाफ काफी काम किया है और मैं अब टूट रहा हूं ये देख कर कि मैं हिंदू अतिवादियों की तो आलोचना करता हूं पर देख्ता हूं कि उधर से मुस्लिम की तरफ से कोई सकारात्मक रिस्पांस नहीं हैं । खैर चूंकि मैं तो उर्दू से जुड़ा हूं ग़ज़ल से जुड़ा हूं इसलिये मुझे तो ये सब झेलना ही हे ।
पंकज जी आपने मोदी को संबोधित अपनी कविता में क्या लिखा यह मैं नहीं जानता. यह पहले बता दूँ की मैं तथाकथित धर्मनिरपेक्षतावादियों की तुष्टीकरणवादी नीति से तो सहमत नहीं ही हूँ, हिंदुत्ववादियों को उनसे भी ज्यादा हिन्दुविरोधी पता हूँ. ये केवल अपने स्वार्थों के लिए हिंदू समुदाय का उपयोग कर रहे हैं, बिल्कुल वैसे ही जैसे तथाकथित अल्पसंख्यकों का उपयोग धर्म निरापेक्षतावादी कर रहे हैं. फ़िर भी अगर एक पक्ष चुनने की बात आए तो मैं धर्म निरपेक्षता के पक्ष में ही हूँ. लेकिन वह धर्म निरपेक्षता नहीं जो नेहरू-गांधी ने इस देश पर थोपी है. यह गौर करने की बात है की यशपाल जैसा वामपंथी रचनाकार भी 'झूठा सच' उपन्यास लिखते हुए आश्चर्यजनक रूप से अपनी विचारधारा के ख़िलाफ़ खडा दिखाई देता है. राहुल को उर्दू-हिन्दी के मुद्दे पर पार्टी से बाहर कर दिया जाता है. आप उर्दू पर अधिकार रखते हैं तो इतना तो जानते ही होंगे की यह लिपि, उच्चारण और यहाँ तक कि व्याकरण की दृष्टि से भी कितनी अवैज्ञानिक भाषा है. फ़िर भी यह मानने में मुझे कोई गुरेज नहीं है कि इसने फिराक, मीर और गालिब जैसे शायर दिए हैं. कुर्रतुल एन हैदर, इस्मत चुगताई और मंटो जैसे लेखक दिए हैं. बेशक इसकी इज्ज़त की जानी चाहिए, पर क्या यह राष्ट्रभाषा बनने लायक थी? फिराक जैसे प्रतिभाशाली रचनाकार की कुंठा की वजह उनके बारे में फैलाई गई ग़लतफहमियाँ थीं और गलतफहमियाँ सिर्फ़ इसलिए फैलाई गईं कि वह हिन्दू थे और लिख कर उन्हें दबाने की कोई भी कोशिश बेकार जाती.
मोदी के सन्दर्भ में आपसे सिर्फ़ एक गुजारिश है. वह यह कि मोदी धर्मनिरपेक्षता के उतने बड़े दुश्मन नहीं हैं जितने कांग्रेसी हैं. देश में साम्प्रदायिक कटुता के सारे बीज कांग्रेसियों के बोए हुए हैं. हकीकत ये है कि गुजरत में अल्पसंख्यकों पर उतने अत्याचार हुए नहीं जितने प्रचारित किए जा रहे हैं. यह सारा दुष्प्रचार सिर्फ़ वोट के लालच में किया जा रहा है. हम गुजरात की चर्चा करते हैं, तो गोधरा भूल क्यों जाते हैं? हम इस तथ्य को क्यों नजरअंदाज करते हैं कि सत्ता का खून सबसे ज्यादा कांग्रेसियों को ही लगा हुआ है और भारत में आतंकवाद का बीज भी इनका ही बोया हुआ है. कोई दूसरी पार्टी सत्ता में रहे यह इस धुर सामंतवादी खानदानी पार्टी को बिल्कुल बर्दाश्त नहीं होता. इसलिए ये दुष्प्रचार में हमेशा लगे ही रहते हैं.
जहाँ तक सवाल उर्दू या त्योहारों के मसले पर मुसलमानों के सहयोग का है तो वह बहुत छोटा मसला है. यह आपका व्यक्तिगत अनुभव है और व्यक्तिगत अनुभव का दायरा बहुत छोटा होता है. हिन्दुस्तान के सारे मुसलमान वैसे नहीं हैं जैसे आपको मिले. यह मैं फिराक, चकबस्त और क्रिशन चंदर वाले तथ्य के बावजूद कह रहा हूँ. मेरे ऐसे मुसलमान दोस्त भी हैं जिनसे वर्षों मुलाक़ात नहीं हो पाती, पर होलीदिवाली पर शुभकामनाएं देना नहीं भूलते. वैसे ऐसे हिंदू भी हैं जो भूल जाते हैं. तो यह कोई ऎसी बात नहीं है. पर जहाँ तक सवाल कुछ मुसलमानों के साम्प्रायिक सोच से ग्रस्त होने का है, उसके मूल में कारण वे तथाकथित धर्मनिरपेक्षतावादी हैं जिन्होंने उनका जरूरत से ज्यादा तुष्टीकरण किया और अभी भी तरह-तरह से ऐसा कर रहे हैं. जरूरत है उन्हें आईना दिखाने की. वरना वह दिन दूर नहीं जब अलगाववादियों की कोशिशें फ़िर से परवान चढाने लगेंगी.
वैसे अगर आप इसे एक अनुभव मानते हैं तो बेहतर होगा की भविष्य के लिए अपने रचनाकर्म के मामले में वादों के जंजाल और साहित्यिक गिरोहों के भ्रम जाल से सतर्क हो जाएं. जैसे आपने साहस कर यह सच लिखा है, वैसे आगे भी अपनी नंगी आंखों से देख कर वही कोशिश करें, जो आपका अपना अनुभव हो. भांति-भांति के वादी आलोचक आपका कहीं जिक्र नहीं करेंगे या पुरस्कार-सम्मान की दौड़ में आप पिछड़ जाएंगे, इसकी फिक्र छोड़ कर सिर्फ़ सच लिखें. वह सच जो आपको लगता है की यह है.
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