वैसे तो शांति बार्इ को कोई भी नहीं था और उसे निराश्रित ही माना जाता था । वो रहती भी मुस्लिम बहूल इलाके में थी मगर अपनी उम्र भर उसको अहसास नहीं हुआ कि वो निराश्रित है या फिर वो मुस्लिम बहुल इलाके में रह रही है । वो इसलिये क्योंकि वहां पर उसको जो स्नेह दो मुस्लिम युवको से मिला और उसने उन दोनों मुस्लिम युवकों को जो मातृवत स्नेह दिया उसके चलते उसे कभी भी निराश्रित होने का अहसास नहीं हुआ ।
मध्य प्रदेश के सीहोर की बात करें तो वैसे यहां पर कई बार फिजा को बिगाड़ने का प्रयास किया गया है पर ये शहर शांत ही रहा है और समय समय पर अपनी पहचान देता रहा है । यहीं की लाल मस्जिद में रहने वाली 85 वर्षिय शांति बाई वैसे तो निराश्रित थी मगर मुस्लिम बहुल इलाके में रहने वाली शांति बाई को कभी भी इसका अहसास नहीं हुआ । 15 साल पहले पति के निधन के बाद से वे अकेली ही रह रहीं थीं । पास में रहने वाले मोहम्मद अरशद और अरशद राइन उनके लिये पुत्र बने हुए थे । मोहम्मद राइन के अनुसार शांति मां उनको मातृवत स्नेह देतीं थीं और वे लोग भी उनके लिये बेटे समान ही थे । 85 वर्षीय शांति बाई को कभी भी अपने परिवार की याद नहीं सताती थी । मोहम्मद राइन के अनुसार शांति बाई ने उनुको जीवन भर मां की तरह से स्नेह दिया । वे उनके भोजन आदि के लिये मां की तरह से ही चिंतित रहती थीं और अगर उन लोगों को कभी घर आने में देर हो जाए तो चिंतित होकर दरवाजे पर रास्ता देखती रहती थीं । माता तुल्य शांति बाई के निधन पर इन मुस्लिम युवकों को लगा कि जैसे उनहोंने अपनी मां को ही खो दिया है । इन मुस्लिम युवकों ने न केवल अपनी मां को हिंदू रीति रिवाज से कंधा दिया बल्कि हिंदू रीति रिवाज से उनका अंतिम संस्कार भी किया और उस समय तो लोगों की आंखें नम हों गई जब मुस्लिम बेटे राइन ने अपनी हिंदू मां की चिता को मुखाग्नि देकर अपना फर्ज पूरा कर दिया । शायद ऐसी ही घटनाएं और ऐसे ही लोग अभी देश को सांप्रदायिकता के जहर से बचाए हुए हैं ।