मुंतज़ार अल ज़ैदी की तरह हिम्‍मत वाला क्‍या कोई पत्रकार वहां नहीं था जो विधु विनोद चोपड़ा को जूता मारने की हिम्‍मत करता ।

( ये लेख केवल पत्रकारों के लिये है क्‍योंकि गैर पत्रकार लेख की कई बातों से असहमत हो सकते हैं )

स्‍वयं पत्रकार होने के कारण अक्‍सर इस बात से दुखी होता हूं कि अब पत्रकारिता में वह पहले जैसा साहस नहीं बचा । उसके पीछे भी एक कारण ये है कि अब तो पत्रकार कहीं हैं ही नहीं । अब जो हैं वे तो कर्मचारी हैं । कर्मचारी जो जैसा आदेश मिलेगा वैसा ही प्रस्‍तुत करेंगें । ऊपर बैठे लोग जैसा तय करते हैं वैसा ही काम करना होता है । मेरे छोटे से शहर सीहोर में आज की तारीख में कोई पत्रकार नहीं है । सब के सब कर्मचारी हैं । किसी न किसी समाचार पत्र के कार्यालय में काम करने वाले कर्मचारी । इन कर्मचारियों को सब कुछ करना होता है । समाचार के लिये विज्ञापनों की व्‍यवस्‍था भी करनी होती है, सुब्‍ह चार बजे आकर के समाचार पत्र के वितरण की व्‍यवस्‍था देखनी होती है और उसके बाद यदि समय बचता है तो समाचार भी लिखने होते हैं । समाचार लिखने होते हैं कुछ इस प्रकार के कि आज ठंड बढ़ गई है, कलेक्‍टर ने एक मीटिंग ली, नेता जी ने अपना जन्‍मदिन मनाया, फलां प्रवचन कार ने आज अपने प्रवचन में ये कहा । ये ही लिखा जा रहा है । यदि आप इनको ही समाचार मानो तो मानते रहो ।  दरअसल में ये किसी पत्रकार द्वारा लिखा जा रहा समाचार नहीं है बल्कि कर्मचारियों द्वारा अपनी नौकरी को सुरक्षित रखने के लिये किया जा रहा प्रयास है ।

खैर तो बात करते हैं विधु विनोद चोपड़ा की  पत्रकार वार्ता की ।   क्‍या वहां कोई ऐसा पत्रकार नहीं था जो मुंतज़ार अल ज़ैदी की तरह अपने जूते उतार कर उस बदतमीज़ आदमी पर मारने का साहस कर पाया । कल जब वह दृष्‍य देखा तो मन खिन्‍न हो गया । चोपड़ा जिस प्रकार से पत्रकार की तरफ उंगली उठा कर शटअप कह रहा था । निश्चित रूप से उसका जवाब जूते से ही दिया जा सकता था । कुछ लोग कहते हैं कि नहीं पत्रकार को ये सब नहीं करना चाहिये उसकी क़लम ही जवाब देती है । मेरा मानना है कि हर जगह क़लम जवाब दे ये ज़रूरी नहीं है । क्‍योंकि चौपड़ा जैसे लोग तो चाहते ही हैं कि उनके खिलाफ लिखा जाए और उनको प्रचार मिले । ठीक है हम उस बात को लेकर रात भर चैनलों पर दिखाते रहे कि किस प्रकार से उस चौपड़ा ने बदतमीजी की और क्‍या क्‍या किया । लेकिन उससे तो चौपड़ा और आमिर दोनों का स्‍वार्थ ही सिद्ध हो रहा था । वे तो चाहते ही यही थे । मेरे विचार में तो चोपड़ा की जूतों से कुटाई की जानी थी और उस घटना का प्रचार होना था । कि आपको प्रचार चाहिये न तो ठीक है ये लीजिये प्रचार । हम पत्रकार हैं हमें टेकन एस ग्रंटेड न समझें ।

कुछ दिनों पहले की बात है पत्रिका समाचार पत्र ने हमारे यहां पर एक सेमीनार का आयोजन किया था । उसमें शहर भर के लोग बुलाए गये थे । उसमें पत्रिका के श्री गुलाब कोठारी जी भी थे । उस ही आयोजन में जब एक नेताजी को बोलने का मौका मिला तो उसमें उन्‍हानें फरमाया कि आजकल की पत्रकारिता तो ऐसी है कि पत्रकार एक बोतल दारू में बिक जाते हैं । नेताजी के बाद एक समाज सेविका जी की बारी आई तो वे बोलीं कि पत्रकारों को पढ़ने की ज़रूरत है आजकल गंवार लोग पत्रकारिता कर रहे हैं । ध्‍यान दें ये बातें कहां हो रही हैं एक समाचार पत्र के सेमीनार में समाचार पत्र के प्रधान संपादक के सामने । हम स्‍वयं ही अपनी खिल्‍ली उड़वा रहे हैं और बाकायाद आयोजन करवा के उड़वा रहे हैं । क्‍या ज़रूरी नहीं था कि श्री गुलाब कोठारी जी उन नेताजी को टोकते कि महोदय आप कम से कम संयमित भाषा को तो उपयोग करें । किन्‍तु बात वही है कि विज्ञापन भी तो वही नेताजी देते हैं । कहावत है कि दूध देने वाली गाय की लात तो खानी ही पड़ेगी ।

मेरे ही शहर का एक समाचार है कि यहां पर साई ( स्‍पोर्टस अथारिटी आफ इंडिया ) द्वारा लाखों खर्च करके एक ट्रेक बनाया गया था कुछ दिनों पहले ही । लाखों का ये फिगर करोड़ के नजदीक का ही था । अब किसी सिरफिरे को सूझा कि उसी स्‍थान पर गर्ल्‍स होस्‍टल बना दिया जाये । ( सूझा ठेकेदार को जिसे गर्ल्‍स होस्‍टल बनाने का ठेका मिला था, क्‍योंकि बेस तो बना बनाया मिल रहा था ) तो उस लाखों के ट्रेक को खोद कर वहां पर हॉस्‍टल बना दिया गया । जबकि उसके पास ही ढेर सारी सरकारी जमीन थी । ट्रेक का पूरा मलबा ठेकेदार के काम आ गया । ये समाचार कहीं किसी ने नहीं लिखा । क्‍यों क्‍योंकि ठेकेदार समचार पत्रों को विज्ञापन देने वाली एक बड़ी पार्टी है ।

अभी भी पत्रकारिता ही है जो राजनेताओं और अफसरों पर कुछ अंकुश रखे है किन्‍तु यदि ये अंकुश ही कमजोर हो गया तो समाज को कमजोर होते समय नहीं लगेगा ।

7 comments:

विवेक रस्तोगी said...

सब जगह गड़बड़झाला है, सभी लोग केवल अपनी रोजी-रोटी के लिये काम कर रहे हैं, मजबूरी है सबकी, ऐसा नहीं है कि सत्य नहीं जानते हैं पर बोलने की हिम्मत बहुत कम लोगों में है, केवल मीडिया में ही नहीं लगभग यह कहानी हर कार्पोरेट हाऊस की भी है, मीडिया से सभी लोग जुड़े हुए हैं पर मेरे हिसाब से तो सभी लोगों के अंदर इसी बात का ज्वालामुखी दहकता रहता है, कि अपने मन की न कर पाना और न कह पाना।

Anonymous said...

आपकी बातें बिल्कुल जायज हैं और विवेक रस्तोगी की टिप्पणी भी.

Udan Tashtari said...

सहमत हूँ आपसे. स्थितियाँ अफसोसजनक हैं.

Smart Indian said...

सुबीर जी,

सच के लिए अग्रिम पंक्ति में खड़े होने का साहस भी चाहिए न.

नववर्ष की शुभकामनाएं!

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

' सरफरोशी की तमन्ना अब भी हमारे दिल में है
जानना है जोर कितना बाजू ए कातिल में है
क्या वक्त आया है ...
हर जगह ,
संत बेचारे मौन व्रत धारे हैं और कौवों की जमात घूम रही है
ये विनोद चोपड़ा वाला प्रकरण ,
अभी सुना और हैरान हूँ ....!!??
- लावण्या

Anonymous said...

sir aapne bilkul sahi farmaya hai. aaj kal ke patrakaro me wo pehle jaisa dam nahi raha, aaj navyuvak patrakaro ko aage badne ka moka nahi mil raha hai..moka milne par unhe daba diya jata hai, mai khud ek navyuvak patrakar hun aur samjhta hun ki aaj is samaaj me kitani gandgi bhari hai. aapne jo lekh likha hai vidhu ji ke liye, weh kabile tarif hai
Samarth Samadhiya
sthaniya sampadak
Dainik Subah Savere

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

अफसोसजनक हैं... लेकिन हिम्मत तो करनी ही पड़ेगी... पत्रकारिता को बदनामी से बचाने के लिए...