लोकतंत्र का जो ढांचा तैयार किया गया है उसमें दो एक एक की व्यवस्था है । दो एक एक का अर्थ ये है कि व्यवस्था की जवाबदारी दी गई है दो को दो का अर्थ कार्यपालिका और विधायिका । ये दोनों ही व्यवस्था के लिये जिम्मेदार होते हैं । जो कुछ भी हमारे आस पास हो रहा है उसके लिये प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से ये ही जिम्मेदार होते हैं । इनमें से भी विधायिका को तो फिर भी पांच साल में एक बार अपने कार्यों की स्वीकृति लेने हमारे पास आना होता है । किन्तु कार्यपालिका के पास तो ऐसी कोई बाध्यता भी नहीं है कि उसको हमारे पास आना है । और शायद यही सोच कर इन दो पर एक न्यायपालिका और एक पत्रकारिता को बैठाया गया । उसमें से भी न्यायपालिका भी व्यवस्था का ही हिस्सा होती है अत: रह जाती है एक पत्रकारिता । केवल और केवल पत्रकारिता ही है जो कि सत्ता के मद में चूर कार्यपालिका और विधायिका रूपी हाथी के मस्तक पर छोटे से अंकुश का कार्य करती है । लेकिन इन दिनों पत्रकारिता में ये हो गया है कि जो संपादक विराजमान हो रहे हैं वे भी लगभग कार्यपालिका के पक्षधर हैं उनका आम जन से कोई लेना देना नहीं होता है । उनका फरमान होता है कि हर समाचार में प्रशासन और पुलिस का नजरिया ज़रूर जाये अन्यथा समाचार नहीं लगेगा । अर्थ ये कि आप किसी भी समाचार के पहले पुलिस और प्रशासन से पहले सर्टिफिकेट लो छापने का तभी वो छपेगा । और अधिकांश मामलों में होता ये है कि प्रशासन और पुलिस उस समाचार को छपने से पहले ही दबा देते हैं । जैसा हमारे शहर में कल हुआ ।
कल हमारे शहर के एक निजी स्कूल में पढ़ने वाली कक्षा दस की एक छात्रा को वहां की प्रिसीपल ने स्केल से इतना मारा कि उसके हाथ पांव सूज गये और वो लड़की दो घंटे तक बेहोश रही । बात पूरे शहर में चर्चा का विषय बन गई । लड़की का क़सूर केवल इतना था कि वो कक्षा की मानीटर थी और उसकी कक्षा में शोर शराबा हो रहा था । बात के फैलते ही स्कूल प्रबंधन हरकत में आया और लड़की के परिवार वालों पर बात को वहीं खत्म कर देने का दबाव बनने लगा । सारे समाचार पत्रों को ये बात पता थी लेकिन सब प्रतिक्षा कर रहे थे कि कब लड़की के परिवार वाले पुलिस में रिपोर्ट करते हैं । और आखिरकार ये हुआ कि स्कुल प्रबंधन के दबाव में पीडि़त लड़की के परिवार ने कोई रिपोर्ट नहीं लिखवाई । इसके साथ ही सारे समाचार पत्रों ने अपने कर्तव्य की इतिश्री भी कर ली । सबका कहना था कि पुलिस रिपोर्ट ही नहीं हुई तो हम क्या कर सकते हैं । बात भी सही है कि जब पीडि़त परिवार ही हिम्मत नहीं दिखा रहा है तो भला हम क्यों करें । किन्तु बात तो यहीं से पैदा होती है कि हिम्मत करने के लिये ही तो पत्रकारिता है आम अदमी क्यों हिम्मत करेगा । उसमें इतनी हिम्मत होती तो वो पत्रकार ही न बन जाता । खैर बधाई का पात्र है नवदुनिया समाचार पत्र कि उसने हिम्मत दिखाई और साथ ही चुप होकर बैठ गये समाचार पत्रों दैनिक जागरण, पत्रिका और भास्कर को एक करारा जवाब भी दिया । जवाब ये कि ज़रूरी नहीं कि हर बार इस बात की प्रतिक्षा की जाये कि मामले में पुलिस और प्रशासन का क्या कहना है । समाचार यदि है तो उसको लगाया जा सकता है उसके लिये किसी सर्टिफिकेट की ज़रूरत नहीं होती है । समाचार इतने अच्छे तरीके से लगा है कि उसे एक मिसाल के रूप में रखा जा सकता है । शायद जनवादी पत्रकारिता यही होती है जहां जन के प्रति समर्पण का भाव हो ना कि अफसरों और नेताओं के प्रति ।
2 comments:
कि हिम्मत करने के लिये ही तो पत्रकारिता है आम अदमी क्यों हिम्मत करेगा । उसमें इतनी हिम्मत होती तो वो पत्रकार ही न बन जाता
कितनी सच्ची बात लिखी है आपने...जिस ख़बर से कुछ लाभ मिलने वाला न हो उसे अधिक लंबा नहीं खींचा जाता...चाहे वो समाज के लिए कितनी भी महत्वपूर्ण क्यूँ ना हो...दुःख होता है ये सब देख कर...
नीरज
और तब क्या हो जब अखबार वाले सब कुछ जानते बूझते हुए किसी को माफिया घोषित कर दे...क्यों कि पुलिस ने कहा था....ये हुआ जब सीकर मैं एक राजनेता की हत्या हुई और बिके हुए पुलिस अधिकारी ने प्रेस कांफ्रैंस कर गैंगवार करार दे दिया और अखबारों ने दूसरे दिन उसे माफिया करार दे दिया
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