और उन बातों के बीच ये बातें भी थीं जो चुभ जाती थीं रह रह कर, हम कब मुसलमानों को इस देश का नागरिक मानेंगें आखिर

क्रिकेट अपने रोमांच पर था और चारों तरफ सन्‍नाटा छाया हुआ था । ऐसे समय में कुद बातें ऐसीं भी चल रहीं थीं जो रह रह कर दिल में चुभ जा रहीं थीं बानगी आप भी देखिये
'' सराय ( मेरे शहर का मुस्लिम बहुल इलाका ) में तो आज मातम हो रहा होगा, आखिरकार उनकी टीम हार जो गई है । ''
'' क़स्‍बे (मेरे शहर का एक और मुस्लिम बहुल इलाका ) में तो टी वी फोड़ दिये होंगें लोगों ने । अभी जाओं तो कोई भी बाहर नहीं दिखेगा । ''
'' रमज़ान है पाकिस्‍तान की जीत के लिये दुआ मांगने में जुटे होंगें। लेकिन हमारे भी गणपति चल रहे हैं ''
और भी इस तरह की बातें जो मुझे इस कारण सुननी पड़ रहीं थीं कि मैं एक सार्वजनिक स्‍थान पर खड़े होकर मैच देख रहा था ।बातें चुभ रहीं थीं और मन कर रहा था कि कोई जवाब दूं मगर भीड़ और भेड़ कब किसीकी सुनती है । खैर खरामा खरामा मैच चलता रहा और बातें होतीं रहीं । मैं नहीं जानता कि उस भीड़ में क्‍या कोई मुसलमान भी खड़ा था या नहीं और यदि था तो उसके मन में क्‍या चल रहा होगा । मेरे मन में घूम रहे थे मेरे दोस्‍त डॉ मोहम्‍मद आज़म और मेरे प्रिय छात्र अब्‍दुल कादिर के चेहरे जो हर बार एक ही प्रश्‍न पूछते हैं हमें ये देश कब अपना मानेगा । हमारे पूर्वजों ने इस्‍लामिक देश की जगह पर भारत को स्‍वीकार कर कौनसा अपराध किया था जिसकी सजा हमें मिल रही है । इन सवालों को मेरे पास कोई जवाब नहीं होता है । मैं उस भीड़ को भी कोई जवाब नहीं दे पा रहा था और मानता हूं क‍ि मैं इस कारण अपराधी की श्रेणी में ही गिना जाऊंगा
समर क्षेत्र है नहीं पाप का भागी केवल व्‍याध
जो तटस्‍थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध
तो उन्‍हीं कड़वी बातों के बीच में मैंने वो मैच देखा । यक़ीन जानिये मन बिल्‍कुल नहीं लग रहा था । मगर कमबख्‍़त मैच इतना दिलचस्‍प था किछोड़ा भी नहीं जा सकता था । सो खड़ा रहा वहां पर उसी तरह की और भी अनर्गल बातों को सुनता हुआ ।
मैच ख़त्‍म हुआ और मन में उत्‍सुकता जागी कि क्‍या सचमुच कस्‍बे में या सराय में मातम मन रहा होगा । मन में एक सवाल लिये अपनी मोटर बाइक को उस ओर मोड़ दिया । मित्रों ये पंक्तियां लिखते समय मेरी आंख में सचमुच आंसू हैं मैं झूठ नहीं बोल रहा । मेरी बाइक धीरे धीरे सराय की ओर बढ़ रही थी । मन में कुछ अजीब सा लग रहा था कि मैं भी उनको परख रहा हूं । बाइक सराय के जोड़ पर पहुंची और रोकनी पड़ गई ( मेरी आंखों में तब भी आंसू थे और आज भी हैं ) रोकने का कारण, दरअस्‍ल में एक विशाल विजय जुलूस वहां से चला आ रहा था, मैं समझ गया कि ये जानबूझकर उस इलाके में निकाला जा रहा जुलूस है । बाइक खड़ी कर के मैं एक तरफ हो गया । जुलूस में सबके हाथों में तिरंगे थे । और जोर शोर से हिंदुस्‍तान जिंदाबाद के नारे लग रहे थे । जुलूस पास आया ( उफ ये कम्‍बख्‍़त आंसू ) सैंकड़ों मुसलमानों का जुलूस था वो सबके हाथों में तिरंगें थे और लबों पर हिंदुस्‍तान जिंदाबाद के नारे । मन किया चीख चीख कर कहूं सबसे कि देखो ये देखों ये है तुम्‍हारे सवालों का जवाब । सबसे बड़ी बात ये थी कि पूरे जुलूस में बीस से पच्‍चीस साल के बीच के लड़के ही थे, मैं समझ गया कि अब युवा पीढ़ी ने सांप्रदायिकता को जवाब देने का अपना तरीका ढूंढ लिया है ।कुछ देर तक बाइक रोक कर मैं भी उस जुलूस में चला फिर घर आ गया । आकर देखा तो इरफान पठान को मैन आफ मैच घो‍षित किया गया था । और शाहरुख खान क्रिक्रटरों के बीच थे । मन कुछ हल्‍का हुआ मगर वो प्रश्‍न तो अब भी वहीं खड़ा है कि हम कब मुसलमानों को भारतीय मानने के लिये दिल से तैयार होगें ।
फिर भी मुझ जैसे नपुंसक भीष्‍म पितामह का सलाम मेरे शहर के सराय और कस्‍बे में रहने वाले मुसलमानों को, इरफान पठान को और शाहरुख खान को भी ।

7 comments:

Anonymous said...

सचमुच, अजीब सी बात है ये. उस मैच का सर्वश्रेष्ट खिलाड़ी इरफान पठान था. एक हिन्दुस्तानी. मुझे विश्वास है हर हिन्दुस्तानी मुसलमान को इस जीत से खुशी मिली.

लेकिन एक बानगी और देखी?

मैच खत्म होने पर जब मुश्ताक से रवि शास्त्री ने पूछा की 'शॉट मिस करने पर बुरा लगा?' तो उसने कहा...

मैं माफी मांगता हूं दुनिया में रहने वाले हर मुस्लिम से...

आग इधर भी है
उधर भी
जिस तरफ उठेगीं उंगलियां
जल जायेंगी

Anonymous said...

पाकिस्‍तान में रहने वाले मुस्‍लमानों की बात सुबीर नहीं कर रहे क्‍योंकि उन्‍होंने तो वैसे भी एक इस्‍लामिक देश को 1947 में तरजीह दी थी इसलिये मुश्‍ताक का जवाब मायने नहीं रखता । मगर अज्ञात जी सुबीर तो उन मुसलमानों की बात कर रहे हैं जो भारत में हैं । आप ग़लत उदाहरण देकर क्‍या कहना चाह रहे हैं मैं नहीं जानता

आशुतोष कुमार said...

yah bhee yad rakhen ki jab imram khan ne world -cup jeetaa tha to un ne use samooche hind-pak khitte[south asia] kee jeet bataayaa tha.

ढाईआखर said...

भाई बहुत अच्छी पोस्ट है।
मैं कल मैच देखते हुए सोच रहा था कि अगर श्रीसंत और हरभजन की जगह पठान बंधुओं में से कोई इतना रन देता, जिसने मैच की पूरी तस्वीर ही बदल दी थी तो क्या होता... क्या वो नहीं होता जो 'चक दे' के कबीर खान के साथ हुआ था... भई साठ साल के बाद तो इम्तेहान लेना छोडि़ये। रवि शास्त्री से पूछिये कि उनकी फेवरिट टीम में इंडिया क्यों नहीं शामिल थी। उनकी देशभक्ति पर भी सवाल उठना चाहिए या नहीं... भई खेल है... खेल ही रहने दो। जंग का मैदान न बनाओ।
जो आंख खोलना चाहें, शायद आपकी पोस्ट उनकी आंख खोलने में मदद करे।

पंकज सुबीर said...

नसीर भाई मैं कह रहा था कि मैं तो कल ख़ुद ही वो दृष्‍य देख कर रो रहा था जब मुस्लिम हाथ में तिरंगे लेकर जुलूस निकाल रहे थे । कोई हिंदू या मुसलमान नहीं होता न होना चाहता मगर इस कम्‍बख्‍त सियासत का क्‍या करें । और फिर मैं तो ये कहता हूं कि हम भारत और पाकिस्‍तान वालों को तो मिल कर पीटना चाहिये उन लोगों को जिन्‍होने हमारे पूर्वजों पर दो सौ साल तक केवल हमारी चमड़ी का रंग काला होने के कारण अत्‍याचार किये हें । मेरी एक ग़ज़ल है
मैं लहू के दाग धोना चाहता हूं
दोस्‍ती के बीज बोना चाहता हूं
क़ैदे मज़हब से मुझे आज़ाद कर दो
बस के अब इंसान होना चाहता हूं

ढाईआखर said...

आप सही कह रहे हैं। कहीं आपने मेरी बात को गलत तो नहीं समझा।
मेरा कहना है कि आपकी पोस्ट उन लोगों के लिए आंख खोलने वाली साबित होगी जो खेलों के जरिये अपने ही लोगों का इम्तेहान लेते रहते हैं।
एक बार फिर अच्छी पोस्ट के लिए बधाई।

राज भाटिय़ा said...

भारत की टीम मे सभी ने मिल कर खेला हे,ओर सभी हिन्दुस्तानी हे,जब हमारे शेरॊ ने मिल कर मेच जीता हे, तो हम किस बात पर हिन्दु मुस्लिम कर रेहे हे,कयो अपनी कमदिली दिखा रेहे हे, मेरे दोस्तो मे भारत के मुस्लिम ही नही पकिस्तान के मुस्लिम भी हे,ओर कभी मह्सुस नही हुआ कि हम अलग अलग धर्म के हे, हम सभी ने मिल कर लक्डी का मन्दिर बनाया,तो दोस्त की मोत पर नवाज भी पडी,
राज भाटिया( जर्मनी )